कई दशकों बाद मुजफ्फरनगर जनपद के ऐतिहासिक गांव सोरम में सर्वखाप पंचायत का महाकुंभ 16,17 एवं 18 नवम्बर, 2025 को संपन्न हुआ। अब अगला महाकुंभ 10 वर्षों के पश्चात आयोजित होगा।

सर्वखाप पंचायत का इतिहास भारत के महान् सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल से जुड़ा है (606 से 664 ई.) जब कश्मीर, पंजाब, ओडिशा, नेपाल से नर्मदा नदी तक उनका साम्राज्य फैला था। इस्लामिक आक्रमणकारियों, विस्तार‌ वादियों के खतरे और हिन्दू समाज में उभर रही जातिवादी सोच, वर्चस्व की लड़ाई और राष्ट्रीयता की सोच के अभाव से भारत आक्रान्त था। भितरघात से मगंध और पाटलीपुत्र की बुनियादें दरक रही थीं।

वैदिक काल से ही भारत में ग्राम, ग्राम समूह, मुखिया की महत्ता शासन का आधार थी। बाण भट्ट और चीनी यात्री ह्वेनसांग ने सामने सम्राट हर्षवर्धन की योग्यता, दूरदृष्टि एवं युद्धकौशल का उल्लेख किया है। हर्षवर्धन ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया और घर के भीतर तथा बाहर के मंडराते खतरों को समझा और विदेशी आक्रांताओं से मुकाबले के लिए ग्रामों के समूहों (कौटिल्य ने अपने अर्थ शास्त्र में 200 ग्रामों के समूह को 'संग्रहण' तथा स्थानिक नाम दिया है) में एकता का संचार किया। इन समू‌हों में हिंदुओं की सभी जातियों के प्रमुख (चौधरी) शामिल होते थे। कालांतर में ये क्षेत्रीय समूह 'खाप' कहलाये। यह अति दुर्भाग्यपूर्ण है कि खापों की सामाजिक उपयोगिता एवं उनकी आवश्यकता को आज का कथित प्रगतिशील तबका, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के जज भी शामिल थे, दकियानूसी दृष्टि से आकलन करता है। खैर, यह अलग विषय है। बात तो सम्राट हर्षवर्धन की चल रही थी। सम्राट ने खतरे को भांपा और प्रयागराज (इलाहाबाद) में सभी खापों के क्षत्रपों को सन्देश भेज कर पहली खाप महापंचायत कराई जिसमें नब्बे हजार लोग शामिल हुए। खापों की मजबूती और वीरता से सम्राट हर्षवर्धन ने 59 वर्ष शासन किया। कोई पुत्र न होने के कारण उत्तराधिकारी के अभाव में उनका साम्राज्य बिखर गया।

खाप प्रथा धीरे-धीरे सिमिट कर पंजाब (आधुनिक हरियाणा), पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान (भरतपुर स्टेट) तक सिमिट गई। सर्वखाप पंचायत के इतिहास तथा अन्य अभिलेखों में वर्णित है कि जब विदेशी हमलावर तैमूर लंग दिल्ली और मेरठ (मयदंत का खेड़ा या मयराष्ट्र) को फतह करता हुआ सहारनपुर की ओर बड़ा तो वीरांगना रामप्यारी गुर्जर ने 40 हजार की स्त्री सेना के साथ उसका मुकाबला किया और उसे धूल चटा दी। युद्ध में घायल होने के चन्द दिनों पश्चात तैमूर लंग मर गया था। सर्वखाप पंचायत की और भी स्वर्णिम गाथाएं है, आलेख बड़ा न हो जाए, इस लिए उन का वर्णन नहीं कर रहे हैं।

संक्षेप में कहा जाए तो निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा व राजस्थान के लोगों ने खापों की उपयोगिता समझी और सदियों पहले सोरम में सर्वखाप पंचायत का मुख्यालय स्थापित किया। पिछले अध्यक्ष चौधरी कबूल सिंह पिताश्री स्व. राजरूप सिंह वर्मा के पास आते रहते थे। उनके निधन के पश्चात सन् 1987 में 'देहात' के कार्यालय पधारे थे, चांदी का एक रुपया भेंट किया था। मैंने उनसे निवेदन किया कि जिन शाही फरमानों को पोटली में रख कर घूम रहे हैं, उन सब को संरक्षित कराइयें।

सर्वखाप महापंचायत के मुख्यालय एवं अन्य साक्ष्यों की रक्षा करने में चौ. कबूल सिंह व उनके पूर्वजों का बड़ा योगदान रहा है। इस अवसर पर स्वामी ओमानंद महाराज ने  चौ. कबूल सिंह की प्रतिमा की स्थापना कर पुनीत कार्य किया।

सोरम महापंचायत में अन्य विशिष्टजनों के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. संजीव बालियान भी उपस्थित थे। मुझे याद है कि उन्होंने अपनी सांसद निधि से सर्वखाप पंचायत भवन का पुनर्निमाण, पुस्तकालय और कम्प्यूटरीकरण कराया था। महापंचायत के आयोजकों का कर्तव्य था कि इस मौके पर उनके सहयोग के लिए विशेष रूप से उन्हें सम्मानित किया जाता।

पं. जगदेव सिंह सिद्धान्ती का सर्वखाप की भावना को पुनर्जीवित करने और इसका इतिहास लिखने में महत्वपूर्ण योगदान था। कायदे में तो उनकी प्रतिमा भी स्थापित होनी चाहिये थीं।

महापंचायत में समय के अनुकूल 11 प्रस्ताव पारित हुए। समाज के हित में इनका पालन होना चाहिए। जिन से अपेक्षा की गई है वे तो खुद राजनीति की दलदल में फंसे खड़े हैं।

महापंचायत में यह याद करने की जरुरत थी कि सम्राट हर्ष वर्धन और सम्राट मिहिर भोज के समय खापों की एकता की जरूरत क्यूं महसूस हुई थीं। आज क्या देश उन्हीं परिस्थितियों से नहीं गुज़र रहा है? पंचायत में एक शब्द‌ भी इस संबंध में नहीं बोला गया। यह कैसी राजनीति है? समाज के ताने-बाने को सुधारने के साथ देश की संस्कृति, सार्वभौमिकता और सम्मान की रक्षा का सन्देश भी तो आना चाहिए था। क्या सोरम तक लाल किले की धमक नहीं पहुंची थी?

गोविंद वर्मा (संपादक 'देहात')