देवभूमि उत्तराखंड में प्रसिद्ध चारधाम के अलावा लोक आस्था से जुड़े कई पौराणिक मंदिर एवं तीर्थ स्थल विद्यमान हैं। इन्हीं में शामिल है तीर्थनगरी ऋषिकेश के पास स्थित नीलकंठ महादेव मंदिर। यहां शिवरात्रि पर्व व श्रावण मास में लाखों शिवभक्त अपने आराध्य के दर्शन एवं जलाभिषेक को पहुंचते हैं। नीलकंठ महादेव मंदिर में भगवान शिव स्वयंभू लिंग के रूप में विराजमान हैं। पुराणों में उल्लेख है कि समुद्र मंथन के दौरान कंठ में हलाहल (कालकूट विष) धारण करने के बाद भगवान शिव यहीं आकर नीलकंठ कहलाए।

नीलकंठ महादेव मंदिर ऋषिकेश के पास पौड़ी जिले के यमकेश्वर ब्लाक में 5500 फीट की ऊंचाई पर मणिकूट पर्वत की तलहटी में बहने वाली पंकजा व मधुमति नदियों के संगम पर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए कई श्रद्धालु मोटर मार्ग के बजाय स्वर्गाश्रम से होकर जाने वाले पैदल मार्ग का उपयोग करते हैं। करीब 12 किमी लंबा यह पैदल मार्ग घने जंगल के बीच खड़ी चढ़ाई से होकर गुजरता है।

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द्रविड़ शैली में निर्मित नीलकंठ महादेव मंदिर की आभा देखते ही बनती है। इस अत्यंत मनोहारी मंदिर के शिखर के तल पर समुद्र मंथन के दृश्य चित्रित हैं। जबकि, गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर एक विशाल पेंटिंग में भगवान शिव को विषपान करते हुए दर्शाया गया है। नीलकंठ मंदिर के सामने की पहाड़ी पर भगवान शिव की अर्धांगिनी माता पार्वती का मंदिर भी स्थित है। भगवान नीलकंठ के दर्शनों को पहुंचने वाले श्रद्धालु माता पार्वती के दर्शन किए बगैर अपनी यात्रा को अपूर्ण मानते हैं।

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नीलकंठ से जुड़ी मान्यता

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हजारों साल पहले अमृत पाने की लालसा में देवता और असुरों के बीच हुए समुद्र मंथन में अनेक रत्न निकले। इन्हें उन्होंने आपस में बांट लिया। इसके अलावा समुद्र मंथन से कालकूल विष (हलाहल) भी प्रकट हुआ, जिससे तीनों लोक में हाहाकार मच गया। मान्यता के अनुसार अमृत को तभी प्रकट होना था, जब कोई हलाहल का पान कर दे। ऐसे में सभी देवता और असुर एक-दूसरे को मुंह ताकने लगे। कोई भी विषपान की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। तब सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान शिव आगे आए और हलाहल को कंठ में धारण कर दिया। हालांकि, इसे उन्होंने कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया। स्कंद पुराण के केदारखंड में उल्लेख है कि हलाहल धारण करने के बाद भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया।

विष की ऊष्मा इस कदर तीव्र थी कि उसे शांत करने के लिए भगवान शिव इसी स्थान पर आकर समाधि में लीन हो गए। मान्यता है कि हजारों वर्ष की तपस्या के बाद माता पार्वती ने भगवान शिव को समाधि से जगाया। तब से भगवान शिव यहां पर स्वयंभू लिंग के रूप में विद्यमान हैं और इस स्थान को नीलकंठ के नाम से जाना जाता है।