क्षेत्रीय आयुर्वेदिक अधिकारी डॉ. इसम सिंह ने बताया है कि राज्य के आयुर्वेद निदेशक ने 32 औषधियों की बिक्री पर पाबन्दी लगा दी है क्योंकि जांच कराने पर वे अधोमानक (सब-स्टैंडर्ड) पाई गई थीं। इन 32 आयुर्वेदिक औषधियों में हिमालयन वैलनेस की खूब बिकने वाली औषधि लिव-52 भी है जो यकृत (लीवर) की बीमारी में प्रयुक्त होती है। लिव-52 इतनी कामयाब हुई कि एलोपैथिक चिकित्सक भी उसका प्रयोग तजवीज करते हैं। प्रतिबंधित सभी आयुर्वेदिक औषधियों की गुणवत्ता व प्रभाव होने के कारण उनकी मांग बढ़ी फलस्वरूप मुनाफाखोरों ने इन औषधियों में कम प्रभाव वाली व सस्ती वस्तुएं (कारक) प्रयुक्त करना शुरू कर दीं। इसी प्रकार जाँच में 10 औषधियां नकली पाई गईं जिनमें सुन्दरी कल्प, रूमी प्रवाही, वेदान्तक वटी आदि शामिल हैं।
इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि ये आयुर्वेदिक औषधियां इतनी प्रभावी सिद्ध हुई कि बाजार में इनकी मांग बढ़ी और मुनाफाखोरों ने अपना कुकृत्य आरंभ कर दिया। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि कई आयुर्वेदिक औषधियां एलोपैथिक (अंग्रेजी) दवाओं के मुकाबले अधिक कारगर व स्वास्थ्य रक्षक सिद्ध हुई हैं। हाल के वर्षों में आयुर्वेदिक औषधियों का प्रचलन खूब बढ़ा है, अधोमानक एवं नकली औषधियां भी बहुतायत से बाज़ार में आ रही हैं। आयुर्वेद निदेशालय ने औषधियों की जांच परख करा के श्रेष्ठ कार्य किया और मरीजों को आगाह कर उन्हें नकली औषधियों से बचने की श्रेष्ठ सलाह दी।
किन्तु इतना ही प्रर्याप्त नहीं है। स्वास्थ्य विभाग या शासन को दोषी औषधि कंपनियों एवं मेडिकल स्टोरों के संचालको के विरुद्ध सख्त से सख्त कार्यवाही करनी चाहिए। पूरे उत्तरप्रदेश में अधोमानक व नकली औषधियों को खोजने व जब्त करने का अभियान चलाना चाहिए। प्रत्येक स्टोर पर प्रतिबंधित औषधियों के नाम के पोस्टर अनिवार्य रूप से चस्पा किये जाये तथा जब्तशुदा औषधियों की सूचना मीडिया को दी जाए। क्या आयुर्वेद निदेशालय ऐसा कर सकेगा ?
छपते-छपते: इन पंक्तियों के लिखे जाने के वक्त उत्तर प्रदेश के आयुर्वेद निदेशक प्रो.पी.सी.सक्सेना का एक बयान सामने आया है। सक्सेना जी फर्माते हैं कि 12 मार्च को जिन 32 दवाओं पर पाबन्दी लगा दी गई थी, उनमें से अब लिव-52 और सिस्टोन सिरप की बिक्री से प्रतिबंध हटा लिया गया है अर्थात् हिमालयन वैलनेस कम्पनी द्वारा निर्मित औषधियां अब पूर्व की भांति बिकती रहेंगी, क्यूंकि कंपनी का स्पष्टीकरण हमारे पास आ गया है।
प्रोफेसर सक्सेना जी से सीधा प्रश्न है। लखनऊ में औषधि परीक्षण की बड़ी और पुरानी लैबोरेट्री है। क्या प्रतिबंधित 32 आयुर्वेदिक औषधियों का इसमें क्लिनिकल परीक्षण हुआ था? जो कमियां परीक्षण में पाई गईं, उन्हीं के आधार पर पाबंदी घोषित की गई थी। फिर निर्माता कम्पनी के स्पष्टीकरण के बाद पाबंदी हटाने की क्या मजबूरी आन पड़ी? या तो औषधि परीक्षण में लापरवाही हुई या कम्पनी के स्पष्टीकरण में गोलमाल है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय एलोपैथिक दवा कम्पनियों का पूरा दबाव भारतीय चिकित्सा पद्धति पर है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आयुर्वेद के और यूनानी औषधियों के प्रचार प्रसार से तिलमिलाई हुई हैं और अदालतों तक पर दबाव बनाने में जुटी हैं।
ऐसे में आयुर्वेद विभाग को फूंक-फूंक कर क़दम रखने की ज़रूरत है ताकि आयुर्वेद के प्रभाव व आजमाई गई औषधियों की लोकप्रियता पर आंच न आएं। आशा है प्रो. सक्सेना साहब इस मर्म को समझ सकेंगे।
गोविन्द वर्मा
संपादक 'देहात'