नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि नागरिकों को अपने बोलने के अधिकार की अहमियत समझनी चाहिए और इसके साथ-साथ स्वविवेक, संयम और ज़िम्मेदारी का पालन करना चाहिए। कोर्ट ने खास तौर पर सोशल मीडिया पर फैल रही विभाजनकारी प्रवृत्तियों पर चिंता जताई और कहा कि इस पर रोक लगाने की ज़रूरत है।
राज्य के हस्तक्षेप से पहले नागरिक निभाएं जिम्मेदारी
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उसका उद्देश्य किसी भी प्रकार की सेंसरशिप लागू करना नहीं है, बल्कि वह चाहता है कि नागरिक खुद ही इस अधिकार का संतुलित और जिम्मेदार इस्तेमाल करें। कोर्ट ने कहा, “कोई नहीं चाहता कि ऐसे मामलों में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़े। इसलिए ज़रूरी है कि लोग खुद ही ऐसा कुछ न कहें जिससे समाज में तनाव या अशांति फैले।”
भाईचारे और एकता की भावना को बनाए रखने की अपील
सुप्रीम कोर्ट ने समाज में सौहार्द और एकता की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए कहा कि वर्तमान समय में अलगाववादी सोच का फैलाव तेजी से हो रहा है, ऐसे में नागरिकों को अपने शब्दों का चयन सोच-समझकर करना चाहिए। अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान द्वारा सुनिश्चित है, लेकिन इसके साथ ही इसमें युक्तिसंगत सीमाएं भी निर्धारित की गई हैं, जिनका सभी को पालन करना चाहिए।
क्या था मामला?
यह टिप्पणी शीर्ष अदालत ने उस याचिका की सुनवाई के दौरान की जिसमें सोशल मीडिया पर अपमानजनक और भड़काऊ टिप्पणियों को लेकर चिंता जताई गई थी। कोर्ट इस बात पर भी विचार कर रहा है कि क्या ऐसी कोई आचार संहिता तैयार की जा सकती है जिससे डिजिटल मंचों पर अभिव्यक्ति की आजादी और सामाजिक सौहार्द के बीच संतुलन बना रहे।