नक्सलियों का संहार :-
अप्रैल का महीना शुरू होते ही उग्रवादी नक्सली आन्दोलन (या खूनी विद्रोह) पर नियंत्रण की विशेष खबरें आई थीं। 3 दिन पूर्व का समाचार था कि छत्तीसगढ़ में 10 नक्सली उग्रवादियों ने आत्मसमर्पण कर दिया है। फिर खबर आई कि सड़क निर्माण में लगे चार वाहनों को झारखंड में अतिवादियों ने फूंक डाला। अब खबर आई है कि छत्तीसगढ़ के बीजापुर में दो महिलों सहित 10 नक्सलियों और मध्यप्रदेश के बालाघाट में दो इनामी उग्रवादियों को सुरक्षा बलों ने ढेर कर दिया।

कुछ वर्षों पूर्व उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी और सीमा सुरक्षा बल के तत्कालीन महानिदेशक प्रकाश सिंह मुजफ्फरनगर के श्रीराम कॉलेज की एक गोष्ठी में आये थे। उन्होंने कहा था कि पश्चिमी बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से उठा हिंसक आन्दोलन का आंध्र तक 200 से अधिक जिलों में फैल जाना राजनीतिक इच्छाशक्ति और शासनतंत्र की विफलता की निशानी है।
उल्लेखनीय है कि 10 वर्षों में नक्सली हिंसाओं के दौरान 736 नागरिकों, 489 जवानों व 656 नक्सलियों को जान गवानी पड़ी थी। अरबों रुपये मूल्य की सार्वजनिक तथा निजी संपत्ति हिंसा में नष्ट हुई। यह बड़ी राष्ट्रीय क्षति है।

गृहमंत्री अमित शाह ने लगभग 6 माह पूर्व घोषणा की थी कि नक्सलवाद‌ पर 90 फीसद तक काबू पा लिया गया है किन्तु हाल की घटनायें दिखाती हैं कि इन आतंकी घटनाओं या हिंसा रोकने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और बल प्रयोग, दोनों के इस्तेमाल की जरूरत है ताकि निर्दोषों का खून अब और न बहे।

मुआवजा नहीं, कीमत दीजिए:-
मुजफ्फरनगर की बुढ़ाना तहसील के ग्राम करौदा महाजन व ग्राम लांक के वे किसान एक सप्ताह से अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे जिनकी जमीनें एक्सप्रेस-वे के निर्माण के लिए अधिग्रहीत की गई थीं किन्तु उनकी भूमि के मुआवजे की धनराशि का अभी तक पूर्ण भुगतान नहीं हुआ। इसीलिए किसान धरने पर बैठने को मजबूर हुए।

सड़‌कों अथवा अन्य विकास कार्यों में कृषिभूमि का अधिग्रहण पूर्व से होता आया है। किसान जमीन का मुआवजा पाने के लिए मारे-मारे फिरते रहे हैं। यह शर्मनाक और सरासर ज्यादती है। ऐसी व्यवस्था हो कि किसान की जमीन पर कब्जे के साथ ही उसकी जमीन की रजिस्ट्री कराके पूर्ण भुगतान दिया जाए। किसानों का अनशन पर बैठना दुर्भाग्यपूर्ण है इसकी नौबत नहीं आनी चाहिए। चुनाव के बाद इस पर तुरंत निर्णय हो।

सूखा शुकतीर्थ:-
सदियों पूर्व जिस शुकतीर्थ यानी शुक्रताल में पतित पावनी गंगा प्रवाहित होती थी, वहां अब सोलानी नदी का गन्दा पानी बहता है और वह भी कभी-कभी सूख जाता है। प्रदूषित जल की समस्या अलग से है। यह समस्या बहुत पुरानी है जिसका हल आज तक नहीं निकल पाया तथापि नेताओं और आधिकारियों के मुंह से निकली आश्वासनों की गंगा दशकों से अविरल रूप से बहती आ रही है। अब तो इसकी इतिश्री होनी चाहिए। गंगा की धार शुकतीर्थ लाने के पुराने वायदो, वचनों और आश्वासनों को अब पूरा किया ही जाना चाहिए।

बिना किताबों की पढ़ाई:-
मंहगी शिक्षा का बोझ तो अभिभावकों को अनिवार्य रूप से उठाना पड़ता ही है, इसी के साथ विद्यार्थियों को हर नये शिक्षा सत्र में पाठ्य पुस्तकों की कमी से परेशान होना पड़ता है। कुछ वर्षों पूर्व निजी प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता पाठ्य पुस्तकों की जमकर काला बाजारी करते थे। बेसिक शिक्षा विभाग की राजकीय पुस्तकों का अभाव व नकली पुस्तकों की समस्या से छात्र हलकान रहते थे। जब से शासन ने राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग) द्वारा मुद्रित पुस्तकों की अनिवार्यता लागू की है, तब से इन एनसीईआरटी पुस्तकों का समय से मिलना दूभर हो रहा है। नया शैक्षणिक सत्र आरंभ हो चुका है किन्तु अभी पाठ्यक्रम की आधी पुस्तकें ही उपलब्ध हो पाई हैं।

पाठ्य पुस्तकें व अभ्यास पुस्तिकाओं की उपलब्धता तो शासन व प्रशासन की जिम्मेदारी है। यह हर शिक्षा सत्र में याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए।

गोविन्द वर्मा
संपादक 'देहात'