कोच्चि। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने सोमवार को कहा कि कट्टर हिंदू होने का आशय दूसरों का विरोध करना नहीं है, बल्कि इसका वास्तविक स्वरूप सबको अपनाने और साथ लेकर चलने में है। वे यहां शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास द्वारा आयोजित 'ज्ञान सभा' राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे।
अपने उद्बोधन में उन्होंने बताया कि कुछ लोगों में यह भ्रम होता है कि प्रखर धार्मिक पहचान रखने का अर्थ दूसरों को अपशब्द कहना या नकारना है, जबकि यह धारणा सही नहीं है। उन्होंने कहा, "हम हिंदू हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि किसी अन्य के प्रति विरोध का भाव रखें। असल हिंदुत्व में समावेश और सबको आत्मसात करने की शक्ति है।"
भागवत ने यह भी कहा कि जो भी व्यक्ति समाज को संगठित करने का कार्य करता है, उसे हिंदुत्व के इस मूल भाव को ध्यान में रखना चाहिए।
विद्या और अविद्या—दोनों का जीवन में महत्व
भागवत ने ज्ञान की भारतीय अवधारणा को समझाते हुए कहा कि इस सृष्टि में विद्या (सत्यज्ञान) और अविद्या (अज्ञान) दोनों का ही जीवन में विशेष स्थान है। भारत की परंपरा में इन दोनों को आवश्यक माना गया है, क्योंकि यही जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक दोनों पहलुओं को संतुलित करते हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि भारत को आध्यात्मिक चेतना की भूमि माना जाता है और यहां की राष्ट्रभावना गहराई से जुड़ी हुई है।
कौन है सच्चा ज्ञानी?
आरएसएस प्रमुख ने स्पष्ट किया कि एक सच्चा विद्वान वह नहीं जो केवल चिंतन करता रहे, बल्कि वह है जो अपने विचारों को आचरण में ढालकर जीवन में उतारे और समाज को मार्गदर्शन दे।
कार्यक्रम में उन्होंने ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि मैकाले की औपनिवेशिक सोच से उपजी शिक्षा वर्तमान भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। उन्होंने भारतीय मूल्यों पर आधारित शिक्षण प्रणाली की आवश्यकता पर बल दिया, जो सत्य और करुणा जैसे गुणों को आत्मसात कर विश्व कल्याण की दिशा में कार्य करे।
उन्होंने यह भी कहा कि समाज में समग्र परिवर्तन लाने के लिए हर नागरिक को अपने व्यक्तिगत उत्तरदायित्व के प्रति सजग होकर कार्य करना चाहिए।