तब 10 वर्ष की आयु रही होगी। आंगन लीप कर दादी रंगोली बनाती। उस पर गन्ना रखती। दिया जलाती। खील-बताशे रखती। मुझसे अर्घ दिलवाती। प्रसाद बांट‌ती। फिर भी दशहरा पूजन अधूरा रहता था क्योंकि रामू बहेलिया देर से आता था। नीलकंठ (शायद ‌आज की पीढ़ी ने नीलकंठ देखा ही न हो) के दर्शन के बिना दादी का दशहरा अधूरा रहता इस लिए उसने नीलकंठ के दर्शन की स्थायी व्यवस्था कर ली थी। हर दशहरा को रामू बहेलिया घर आता और नीलकंठ के दर्शन कराता लेकिन आता देर से था। मुझे याद नहीं कि वह नीलकंठ को पिंजरे में रखता था या कपड़ों में छिपा कर रखता। शायद कपड़े में छिपा कर ही रखता होगा। पिंजरे में रखता तो सबको मुफ्त में दर्शन हो जाते। नीलकंठ के दर्शन कराने का वह एक रुपया लेता था। विलम्ब से आने का कारण यह था कि अपने सभी यजमानों को नीलकंठ के दर्शन कराने के बाद हमारे घर आता था। वहां आने के बाद उसकी आमदनी का स्रोत हवा में उड़ जाता था। दरअसल दादी दर्शन के लिए रामू को दस रुपये देती थीं और उड़‌ते हुए नीलकंठ महाराज को देखती थीं। रामू दस रुपये जेब में रखता और नीलकंठ नील गगन में विचरण करता आंखों से ओझल हो जाता।

दादी मुझे समुद्र मंथन की कहानी सुनाती और बताती कैसे महादेव ने कालकूट विष को अपने कंठ में रख लिया था। नीलकंठ को वे भगवान शिव का रूप मानती थी। उनकी अटूट आस्था और उनकी आँखों की संतृप्त चमक आज भी भूल नहीं पाया हूं।

नीलकंठ को आकाश में उड़ते देख वे गुनगुनाती रहती-

नीलकंठ तुम नीले रहियो 

दूध-भात का भोजन करियों 

मेरी बात राम से कहियो ....

विजय दशमी पर्व पर नीलकंठ के दर्शन शुभ माने जाते हैं। दशहरा पर नीलकंठ के दर्शन होने का अर्थ शिव जी की कृपा और पूरे वर्ष धन-धान्य की वर्षा होने का संकेत माना जाता है।

मैं नहीं जानता कि इस विश्वास और आस्था का आज क्या मूल्य है। हम अपनी पुरान आस्थाओं को चर मराता और टूटता हुआ देखने को अभिशप्त हैं।

बाल्य अवस्था और किशोर वय में मैंने नीलकंठ के विषय में जो देखा और अनुभव किया, उसे अवश्य बताना चाहूंगा। मेरा बचपन का कुछ समय ननिहाल में बीता। एक हजार गज के प्लॉट में तामीर तो मुश्किल से 100-150 गज की होगी, बाकी मैदान था। अमरूद, अनार, आडू के कई वृक्ष वातावरण को हरा भरा बनाये रखते। पेड़ों पर भांति-भांति की चिड़ियायें चहचहाती रहतीं। गौरैया व गुरसल के झुंड तो सहन में भी फुदकते रहते। फिर आता दशहरा नानी कहती- जल्दी-जल्दी नहाओ। दशहरा पूजना है। नीलकंठ भगवान के दर्शन करने हैं। और आश्चर्य किदशहरे वाले दिन नीलकंठ कहीं से उड कर पेड़ की डाली पर बैठ जाता। घर के लोग उसे देख कर खुशं होते। 5-6 मिनटों बाद फुर्र से उड़ जाता। शायद दूसरी जगह दर्शन देने हों।

पिताश्री ने गाजीवाला गौहल्ला में मकान बनाया था। पीछे के हिस्से के समीप शिवालय है। उस समय मन्दिर में कई वृक्ष थे। पक्षियों की कलख खूब गूंजती थी। दशहरा पूजन छत पर होता था। पीपल और बरगद दोनों मिले हुए थे- जुड़वां भाइयों की तरह। फिर न जाने कहां से एक नीलकंठ आकर डाल पर बैठ जाता, मानो वह भी पूजा में शामिल हो।

माँ के जाने के बाद नीलकंठ के आने का सिलसिला 2-3 दशहरा तक चला। 30-40 वर्षों से उनके दर्शन नहीं हुए। तोते, हरियल, गौरैया, बुलबुल, कोई भी नहीं आता।

आज मन को धोखा देने के लिए छत पर कुर्सी डलवाकर बरगद की ओर निहारता रहा नीलकंठ क्या एक चिड़िया तक दिखाई नहीं दी। फिर कहीं से उड़ती हुई एक चील चीं-चीं करती हुई टहनी पर बैठ गई। मैं उठकर भीतर चला आया। शायद चील इस युग का प्रतिनिधित्व करने आई हो।

गोविंद वर्मा (संपादक 'देहात')